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गुरुवार, 3 जुलाई 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (२)सरस्वती-वन्दना(घ)‘सत्यम’-‘शिवम’-‘सुन्दरम’ (i) रख तू ऐसी ‘पैठ’ !

(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)   



जो ‘मैले आचरण’ को, अम्ब ! निखारें ‘नित्य’ !
कर दे माँ ! ऐसे यहाँ, ‘काव्य-कला-साहित्य’ !!
हर ‘लेखक-कवि’ के ‘ह्रदय’, में माता ! तू बैठ !
‘कला-दिग्गजों’ में जाननि ! रख तू ऐसी ‘पैठ’ !!
सबकी ‘रचनाधर्मिता’ में हो ऐसी ‘शक्ति’ !
‘मानवता’ के लिए माँ ! बनी रहे ‘अनुरक्ति’ !!
सदा रहें ‘जीवन्त’ माँ !, ‘सुन्दर’, ‘शिव’ औ ‘सत्य’ !
कर दे माँ ! ऐसे यहाँ, ‘काव्य-कला-साहित्य’ !!१!!
‘गन्दे नालों’ से हुई, जैसे गन्दी ‘झील’ |
‘नग्न्वाद’ से हुए हैं, ‘काव्य-कला’ अश्लील ||
‘घोर वासना’ उगलते, सभी ‘कला के रूप’ |
‘धन’ पाने की ‘लालसा’, हुई बहुत ‘विद्रूप’ ||
कर कुछ ऐसा हों नहीं, ‘पैशाचिक दुष्कृत्य’ !
कर दे माँ ! ऐसे यहाँ, ‘काव्य-कला-साहित्य’ !!२!!



‘प्रेम-परिन्दों’ का किया, है इसने ‘विध्वंस’ |
‘निश्चर उलूक’ सा हुआ, तेरा ‘वाहन हंस’ ||
कर कुछ, ‘कला-सुपन्थ’ के, ‘पथिक’ न हों ‘पथ-भ्रष्ट’ !
‘आदर्शों’ के ‘बाग’ के, “प्रसून” मत हों नष्ट ||
हमें सिखायें  जो सदा, करना ‘अच्छे कृत्य’ |
कर दे माँ ! ऐसे यहाँ, ‘काव्य-कला-साहित्य’ !!३!!

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (२)सरस्वती-वन्दना (ग)‘काव्यांग-समंजन’ (ii) संयत ‘छन्द-विधान’ |

(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)                                

                  
                                           
            
‘काव्य-कला’ का दो मुझे, माता ! समुचित ज्ञान !
सदा तुम्हारा करूँगा, ‘सेवक’ बन ‘गुण-गान’ !!
मेरी ‘’रचना धर्मिता’, दे सबको ‘आल्हाद’ !
मेरा मन सन्तुष्ट हो, माँ ! ‘लेखन’ के बाद !!
‘कविता’ कैसी  भी जननि !, ‘तुकान्त’ या ‘अतुकान्त’ !
पढ़ने में अच्छी लगे, करे ‘चित्त’ को ‘शान्त’ !!
‘मर्यादा-सम्पन्न’ हो, संयत ‘छन्द-विधान’ !
सदा तुम्हारा करूँगा, ‘सेवक’ बन ‘गुण-गान’ !!१!!
अम्ब ! तुम्हारे पद गिरूँ, चरण करूँ स्पर्श !
‘कविता’ के ‘पद’ औ ‘चरण’, दें पाठक को हर्ष !!
‘तुक’ न कहीं ‘बेतुकी’ हो, और न ‘अर्थ’-विहीन !
‘गति-यति’ कभी न ‘भंग’ हो, यथा ‘कनसुरी बीन’ !!
माँ ! ‘पिंगल’ का बोध कुछ, मुझ को करो प्रदान !
सदा तुम्हारा करूँगा, ‘सेवक’ बन ‘गुण-गान’ !!२!!


कहीं ‘मात्रिक’ तो कभी, कहीँ ‘वार्णिक छन्द’ |
‘गीत-गज़ल’ जो भी रचें, दे सब को ‘आनन्द’ !!
मेरी ‘रचनायें’ करें, सबको ‘भाव-विभोर’ !
जैसे होता ‘ईख’ का, है ‘मीठा’ हर ‘पोर’ ||
‘काव्य’ मेरा बन सके, माँ ! तेरी ‘पहँचान’ !
सदा तुम्हारा करूँगा, ‘सेवक’ बन ‘गुण-गान’ !!३!!



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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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