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गुरुवार, 9 अक्तूबर 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (13) मानवीय पशुता ((ग) ह्रदय-जाल |

 (सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार) 


                    

तन के  आधे आवरणदेखो  दिये  उतार !
बना शील का आभरण. खुला रूप-बाज़ार !!
इन वस्त्रों  का  देखिये, क्या ही अजब  कमाल !
ह्रदय  फाँसने के  लियेबने  हुये  ये  जाल !!
शायद कोई  भी जगह, तन  की  रही  न  शेष !
जिसे  ढांकने  में  सफलकामिनियों  के  वेश !!
लाज  छिपाने   में   हुए बेचारे   लाचार !!
हुआ  शील  का  आभरण.  खुला  रूप-बाज़ार !!1!!
इन  वस्त्रों  को  देख कर, जागी  सोई आग !
सोई-सोई,  काम  कीगयी  कामना  जाग !!
इच्छाओं  में  भोग  काभरता  जाता  ताप !
इसी  लिये  अनुराग  कोजला  रहा  संताप !!
और वासना-जलधि  मेंआता  जब-तब  ज्वार !
बना  शील  का  आभरण.  खुला रूप-बाज़ार !!2!!
वस्त्र  सभ्यता  के  सदासे  हैं  रहे  प्रतीक  !
शायद  इन्हें  उतार करहम न  कर  रहे  ठीक !!
तन   ढँकने  के  लिये  हैंहमने  पहने  वस्त्र  |
काम-युद्ध के हित  इन्हेंबना रहे  क्यों  अस्त्र !!
क्यों    दिखलाते  गुप्त  कुछतन  के  चापउभार !
बना  शील  का  आभरण.  खुला रूप-बाज़ार !!3!!

1 टिप्पणी:

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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