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मंगलवार, 28 अक्तूबर 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (13) मानवीय पशुता !(छ) काम-नाट्य


 (सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)

                                           
                                                                                                                     
  ‘मानवता को  छल  रहा, फिल्मों  का  संसार |
  पशु-संस्कृति का हो रहा, बिलकुल खुला प्रचार ||
  टी.वी. चैनल आजकल, कमा रहे हैं नाम |
उगल  रहे हैं वासना, ब्रेक-डांस के नाम ||
दाम कमाने के लिये, चिड़ियाँ आधी नग्न |
 सौदा कर के हुस्न का, स्वर्ण-रजत में मग्न ||
कितना उच्छ्रंखल हुआ, रस-राजा श्रृंगार  !
पशु-संस्कृति का हो रहा, बिलकुल खुला प्रचार ||1||
गुप्त ज्ञान खुलने लगा, सरे आम हर ओर !
लाज का पर्दाहटा कर, परियाँहर्ष-विभोर !!
निर्धन बेबस नारियाँ, हो पूँजी की दास !
अपना सब कुछ बेचतीं, जो कुछ उन के पास !!
ब्लू फिल्मों का गरम है, काला चोर बज़ार  !
पशु-संस्कृति का हो रहा, बिलकुल खुला प्रचार !!2!!
सुख के साधन ढूँढने, पाने भौतिक भोग !
आये दिन हैं पालतीं, धनी बनेंयह रोग’ !!
अंग-प्रदर्शन के नये, करतीं कई कमाल !
नर्तकियाँ धनवान हैं, खूब कमा कर माल !!
ममता-मूर्ति छू रही, ऊँची पाप-कगार !
पशु-संस्कृति का हो रहा, बिलकुल खुला प्रचार !!3!!

 

1 टिप्पणी:

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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