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मंगलवार, 9 सितंबर 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य)(9) जोंक (क) (कण्ट-माल)

(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)

शोषण के हाथों थमा, पैना अत्याचार ! 
मानवताके बदन पर, कितने हुये प्रहार !!
चुरा चुरा कर बेचते, ‘कुदरत’ के परिधान’ |
चीर’ धरा का हरण कर, बने निठुर ‘इंसान’ ||
घूस-कमीशन’-दानवों’,  की  आयी  है ‘बाढ़’ |
प्रगति-हिरनियोंको चबा, रही इन्हीं की दाढ’ ||
लाभ-लोभने लूटका, किया गरम ‘बाज़ार’ |
मानवताके ‘बदन’ पर, कितने हुये ‘प्रहार’ !!१!!


ट्यूशनने तालीममें, जमा लिये हैं ‘पाँव’ |
गुरू-शिष्य का प्रेमहै, चढ़ा इसी के दाँव ||
चुरा चुरा कर बेचते, हैं सरकारी माल’ |
चोरों के दुश्चक्रसे, हुआ देश कंगाल’ ||
सेवकसेवा’-रत कई, करते हैं व्यापार |
मानवताके ‘बदन’ पर, कितने हुये ‘प्रहार’ !!२!!


रुके दफ्तरों में अगर, ‘कुलटा पापिन घूस’ |
ट्यूशनभी रुक जायेगी, रक्त रहे ये चूस ||
सबसे पहले रोकिये,  ‘पापी  कुटिल  दहेज़’ |
जिस की मारसे देश का सीनाहै  लवरेज़ ||
बिना  एक  के  दूसरेका  रुकना  बेकार |
  ‘मानवताके ‘बदन’ पर, कितने हुये ‘प्रहार’ !!३!!

                                   
                     

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About This Blog

साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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