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बुधवार, 3 सितंबर 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (7) चूर एकता

 (सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)

 ‘स्वार्थपरता की ‘निठुर’, पड़ी ‘चोट’ भरपूर | 
धीरे धीरे एकता’,  हुई जा रही ‘चूर’ ||
ईर्ष्यासे सुलगा सदा, ‘अन्तरका अनुराग |
ज्यों बादल’ की आगमें, झुलसे सुन्दर बाग’ ||
दिलहो गये तिज़ोरियाँ, ‘प्यारबना व्यापार |
स्वर्ण-रजतकी चाह का , गरम हुआ बाज़ार’ ||
अपनोंसे अपनेहुये, कितने देखो दूर !
धीरे धीरे एकता’, हुई जा रही ‘चूर’ ||||


मन-झीलों’ की ‘सतहपर, उगती ‘लोभ-सिवार’|
कमलखिला कर स्नेहके, इस का करें ‘निखार’ ||
रिश्तों’ पर मैली बहुत, चढ़ी खुदीकी ‘गर्द’ |
इसे हटा कर यत्न से, समझें सब का ‘दर्द’ ||
इंसानी जज्वातका, रहा यही दस्तूर |
धीरे धीरे एकता’, हुई जा रही ‘चूर’ ||||


जातिवादके नाम पर, दल’ बन गये अनेक |
हुई ‘खोखली’ इस तरह, ‘राष्ट्रवादकी ‘टेक’ ||
धर्म’-‘कर्म कर्तव्यहै, दें सब को सन्देश’ |
अपनी सत्तासे बड़ा, होता अपना देश’ ||
और अमनके चमनको, ‘गिद्धरहे कुछ घूर |
धीरे धीरे एकता’,  हुई जा रही ‘चूर’ ||||


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About This Blog

साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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