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बुधवार, 23 जुलाई 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य)(5)समाज-चर्चा (ग) कैसा आज समाज !

(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)


जहाँ सदा ही रहा है, ‘आदर्शों’का ‘राज’ |

‘प्रबुद्ध भारत’ का हुआ, कैसा आज ‘समाज’ !!

इस भारत में कभी थे, सीधे-सच्चे’ लोग |

बदले –बदले आज कल, है अजीब ‘संयोग’ ||

‘छोटी मछली’ को यहाँ, खाता ‘भारी मच्छ’ |

‘अभिमानी’ ‘सामान्य-जन’, को कहते हैं ‘तुच्छ’ ||

हमें दिखाई दे रहा, यद्यपि सुखद ‘स्वराज’ |

‘प्रबुद्ध भारत’ का हुआ, कैसा आज ‘समाज’ !!१!!


रचते यहाँ ‘दबंग’ कुछ, छुप कर ‘शासन-तन्त्र’ |

‘काँटे’ भरने को ‘चुभन’, कुछ हो गये ’स्वतंत्र’ ||

‘धन-बल’-‘जन-बल’-‘राज-बल’, की ‘मनमानी’ खूब |

‘भाषण’ सुन कर लोग सब, गए बहुत अब ऊब ||

माना है ‘गणतंत्र’ के ‘झंडे’ गाड़े आज |

‘प्रबुद्ध भारत’ का हुआ, कैसा आज ‘समाज’ !!२!!


‘अति लालच‘-‘अति क्रोध’ या, अतिशय ‘तृष्णा-भूख’ |

की ‘भट्टी’ में ‘तच’, गयी, है ‘मानवता’ सूख ||

कुछ ‘पिशाच’ दानव कई, करें ‘घिनौनी खोज’ |

‘असमय’ में कुछ ‘बिजलियाँ’, गिरती हैं हर रोज ||

 ‘प्रसून” कभी समाज पर, गिरे न इसकी ‘गाज’ |

‘प्रबुद्ध भारत’ का हुआ, कैसा आज ‘समाज’ !!३!!


मंगलवार, 22 जुलाई 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य)(5)समाज-चर्चा (ख) भारी अहसान

                      (सारे चित्र 'गूगल-खोज'से साभार)
                 
 समाज ‘माता’ की तरह, होता ‘पिता’ सामान |
इस समाज के सभी पर, हैं भारी ‘अहसान’ ||
जीना सिखलाता हमें, यह बन कर ‘आचार्य’ |
इसकी सेवा करें सब, यह नितान्त अनिवार्य ||
समाज ‘भोला’ शम्भु सा, है हरि सा ‘चैतन्य’ |
‘ब्रह्मा’ सा ‘गम्भीर’ है, यह समाज अति ‘धन्य’ ||
‘सत्-रज-तम’ तीनों गुणों,  की समाज है ‘खान’ |
इस समाज के सभी पर, हैं भारी ‘अहसान’ ||१||


अलग-अलग इसके हमें, मिलते कई ‘स्वरुप’ |
‘देश-काल’-‘भूगोल’ के, होते ये ‘अनुरूप’ ||
‘अच्छे स्वरुप’ में सदा, ‘समाज’ है ‘रहमान’ |
और ‘बिगड़ते रूप’ में, है यह ही ‘शैतान’ ||
‘विवेक का सागर’ कभी, और कभी ‘नादान’ |
इस समाज के सभी पर, हैं भारी ‘अहसान’ ||२||


कई ‘विविधतायें’ लिये, इसके ‘गुण’ हैं ‘भिन्न’ |
कभी ‘सुखों का सिन्धु’ है, और कभी अति ‘खिन्न’ ||
‘समाज’ ने पैदा किये, ‘राम-कृष्ण’-‘भगवान’ |
और इसी में हुये हैं ‘रावण-कंस; समान ||
“प्रसून” इसका हुआ है, ‘पतन’ कभी ‘उत्थान’ |
इस समाज के सभी पर, हैं भारी ‘अहसान’ ||३||

       

शनिवार, 19 जुलाई 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य)(5)समाज-चर्चा (क) तुम ‘सागर’ मैं ‘बूँद’

मेरे नित्रो ! इस काव्य-ग्रन्थ का वन्दना-सर्ग समाप्त होने के बाद आज से पुस्तक के मूल विषय पर आप का स्वागत है ! यथासम्भव 'सत्य' के मर्यादित स्वरूप का अनावरण का प्रयास है |श्रावणीय अन्ध विश्वासों पर थोड़ी सी चोटें करने के लिए क्षमायाची हूं | 
(सारे चित्र 'गूगल-खोज'से साभार)

 

जब तक ‘जग’ है, तुम ‘अमर’, क्या ‘कल’ या क्या ‘आज’ ?
हो ‘ईश्वर’ की तरह तुम, ‘पूज्य देव-समाज !!
करूँ तुम्हारी ‘वन्दना’, खोल ‘ह्रदय’, दृग’ मूँद |
तुम ‘पर्वत’ मैं ‘धूल-कण’, तुम ‘सागर’ मैं ‘बूँद’ ||
रहे ‘प्रलय’ में भी ‘अमर’, तुम न हुये ‘निर्बीज’ |
तुम्हें मिटाने में विफल’, ‘काल’ गया है खीझ ||
तुम ‘बदले’, ‘इतिहास में, बदले कितने ‘राज’ !
हो ‘ईश्वर’ की तरह तुम, ‘पूज्य देव’-समाज !!१!!

‘व्यक्ति-व्यक्ति’ से है बना, हुआ तुम्हारा ‘रूप’ |
सभी तुम्हारे ‘अंग’ हैं, क्या ‘कँगला’ क्या ‘भूप’ !!
बिना तुम्हारे है कहाँ, किसका क्या ‘अस्तित्व’ ?
तुम को अर्पित कर दिया, मैंने अपना ‘स्वत्व’ ||
अपने ‘गीतों’ से तुम्हें, दी मैंने ‘आवाज़’ |
हो ‘ईश्वर’ की तरह तुम, ‘पूज्य देव’-समाज !!२!!


‘शान्ति-नदी’ में ‘बाढ़’ के, आये हुये ‘उफान’ |
‘परिवर्तन’ ने ला दिये’, हैं कितने ‘तूफ़ान’ !!
बढ़ने लगीं ‘बुराइयाँ’, ‘अच्छाई’ का ‘ह्रास’ |
‘पीडायें’ देता रहा, चुभता रहा ‘विकास’ ||
पहने हो हंसते हुये, तुम काँटों का ‘ताज’ |
हो ‘ईश्वर’ की तरह तुम, ‘पूज्य’ ‘देव-समाज’ !!३!!






गुरुवार, 17 जुलाई 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (4) राष्ट्र-वन्दना (ख) तुम माता-तुम ही पिता !


सच कहता हूँ, नहीं है, मिथ्या  इस में ‘लेश’ !
तुम ‘माता’,तुम ही ‘पिता’, हे मेरे ‘प्रिय देश’ !!
खा कर पुष्ट ‘शरीर’ है, तुम से पाकर ‘अन्न’ |
‘गोद’ तुम्हारी मिली जो, खेले, रहे ‘प्रसन्न’ ||
‘प्यास’ बुझाई, जब लगी, पीकर ‘शीतल नीर’ |
तुमने हमको दिया जो, अर्पित तुम्हें ‘शरीर’ ||
जो चाहा, तुमसे मिला, रहा न कुछ भी ‘शेष’
तुम माता,तुम ही ‘पिता’, हे मेरे ‘प्रिय देश’ !!१!!
काम तुम्हारे आ सके, ‘हाड़’-‘मांस’ या ‘चर्म’’ |
तभी ‘पूर्ण’ हो सकेगा, मेरा ‘जीवन-धर्म’ ||
‘रूप’ तुम्हारा यत्न से, राखें सदा ‘सँवार’ |
इसमें पनपें मत कभी, अब कुछ ‘विषम विकार’ !!
‘अमन-चैन’ से भरा हो ‘सामाजिक परिवेश’ !
तुम माता,तुम ही ‘पिता’, हे मेरे ‘प्रिय देश’ !!२!!
‘अनेकता’ में ‘एकता’, आज तुम्हारा ‘मन्त्र’ |
प्रयास ‘पुरखों’ ने किये, तब तुम हुये ‘स्वतंत्र’ ||
‘टूटी माला’ फिर जुड़े, ऐसे हों ‘आयास’ !
सभी नागरिक ‘एकजुट’, होकर करें ‘विकास’ ||
कभी ‘आपसी फूट’ का, मत हो सके ‘प्रवेश’ !
तुम माता,तुम ही ‘पिता’, हे मेरे ‘प्रिय देश’ !!३’!!

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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