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सोमवार, 17 फ़रवरी 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (२)सरस्वती-वन्दना (ख)रस-याचना |(i)वात्सल्य-श्रृंगार |

(सारे चित्र ''गूगल-खोज' से साभार) 

मित्रों ! इस काव्य-पुस्तक में प्रत्येक वन्दना-सर्ग में कुछ रचनायें परिवर्धित की हैं ताकि उस विषय में सभी पहलू सामने आ जाएँ -सारे दार्शनिक पक्ष उभर कर आयें ! आप का स्वागत है आप की शुभ कामना के पिपासा है  | आप के मन में सरस्वती मुझे मार्ग-दर्शन देगी !! 
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मेरे सर पर लदा है, माँ ! ‘पापों का भार |

‘हाथ’ धरो माँ, ‘शीश’ पर, करो तनिक ‘उद्धार’ !!
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!’
दीं-हीन हूँ ‘बोध’ से, ‘बालक’ परम ‘अबोध’ |
‘ममता’ की ‘पय-धार’ से, कर ‘मन’ का परिशोध ||
तुम तो जगत्प्रसिद्ध हो, ‘वात्सल्य’ की ‘मूर्ति’ |
मिला न जग से, अब करो, तुम ‘दुलार’ की पूर्ति ||
सरस उठे हर ‘रूक्षता’, करो ‘तरल बौछार’  !
‘हाथ’ धरो माँ, ‘शीश’ पर, करो तनिक ‘उद्धार’ !!१!!
हरो ‘विश्रृंखल वासना’, करो नियंत्रित ‘काम’ |
‘उच्छृंखाल’ हर ‘वृत्ति’ पर, माता लगे विराम ||
‘चिंतन-मनन’ ‘सुकाम’ हो,’कामी’ रहे न वृत्ति’ |
हो ‘रहस्य’ श्रृंगार में, हो संतुलित ‘प्रवृत्ति’ ||
‘काव्य-कलेवर’ में करो, ‘सृजना’ का संचार |
‘हाथ’ धरो माँ, ‘शीश’ पर, करो तनिक ‘उद्धार’ !!२!!


हों ‘संयोग-वियोग’ ये, उभय ‘प्रेम के पक्ष’ |
पावन ‘गंगा-नीर’ से, अमल-विमल औ स्वच्छ |
‘उपालम्भ’ उद्वेग से, रहित शांत निष्पाप |
‘विप्रलम्भ’ के मान भी, भरें न मन में ‘ताप’ ||
सदा ‘प्रेम-रस-पान’ में, ‘प्रेमी’ रहें ‘उदार’ |

‘हाथ’ धरो माँ, ‘शीश’ पर, करो तनिक ‘उद्धार’ !!३!!

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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