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गुरुवार, 30 मई 2013

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (ड) मीनार(विकास की खोखली ऊंचाई ) (५)चकाचौंध (iii) ‘धर्म’ का ‘खून’ |


भीषण जन-समस्याएं जैसे बेरोज़गारी और भुखमरी तथा अनिवार्य आवश्यकतायें एवं नशाखोरी की लत -उस की  पूर्ति के लिये अनर्गल प्रयास  आदि खूनी आतंक वाद का कारण हैं |
सारे चित्र 'गूगल-खोज से साभार)

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‘खूनी होली’  खेलते,  हैं  ‘अधर्म के लाल’ |
हुई ‘धर्म’ के ‘खून’ से, सारी ‘धरती’ लाल  ||
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‘राजनीति’  के  ‘कोढ़’  में,  ‘भ्रष्टाचार की खाज’ |
‘मज़मा’  रोज़     बटोरते,  ‘झूठे भाषण बाज़’ ||
खोल  ‘कपट  की  पोटली’, ‘वादे’  रहे   हैं  बाँट |
किन्तु अभी तक ‘उलझनों’, की न खुल सकी गाँठ ||
नेता   बन   ‘बहुरूपिये’,   बजा   रहे  हैं  गाल |
हुई ‘धर्म’ के  ‘खून’ से,  सारी  ‘धरती’  लाल  ||१||


युवक   हैं  ‘ठाली’   घूमते,  रोज़गार  से  हीन  |
इन  को  कर  के  संगठित,  ‘धूर्त  नीति-प्रवीण’ ||
‘उपद्रवी’ कुछ  बना  कर,  के  इन को  ‘हथियार’ |
भडकाते  हैं  इन्हें  कह,   कर  बातें   दो  चार ||
‘तोड़ - फोड़’,  ‘खूंरेजियों,  के  हो  रहे   ‘बबाल’  |
हुई ‘धर्म’ के  ‘खून’ से,  सारी  ‘धरती’  लाल  ||२||


अपना  उल्लू  साधने,   में  माहिर  कुछ  लोग |
भिड़ा के ‘जनता’  को  स्वयं, खाते  ‘मोहन भोग’ ||
‘हिंसा’  को  भड़का  रहे,  ‘समानता’  के  नाम |
‘साम्यवाद’  को  कर  रहे,  कुछ  ‘पापी बदनाम’ ||
‘भोले भावुक लोग’  कुछ,  फँसते  इन के  ‘जाल’ |
हुई ‘धर्म’ के  ‘खून’ से,  सारी  ‘धरती’  लाल  ||३||
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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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