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मंगलवार, 1 जनवरी 2013

सामयिकी (६)(नव वर्ष) (२)इस नए वर्ष को |



कल नेट रिचार्ज की सुविधा समय से उपलब्ध न होने  तथा फिर    अचानक वोडाफोन का सर्वर फेल होने के कारण इंटरनेट से देर में जुडने के कारण रचना आज पोस्ट कर रहा हूँ | सब को नव वर्ष की हार्दिक वधाई के साथ मनो वेदना का मीठा स्वाद-
(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)  
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हर कोई ‘इस नये वर्ष’ को, कुछ इस तरह मनाये |
‘उम्मीदों के भवन’ जो टूटें, फिर से उन्हें बनाये ||

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‘देश की जनता’ जुड कर, ‘मानवता की शक्ति’ बटोरे |
बिखरे ‘मन के मोती’ टूटे, फिर ‘माला’ में जोड़े ||
कुछ करने का करे इरादा, ‘परिवर्तन’ लाने का-
पकड के माइक, चीख चीख कर, दे मत ‘भाषण कोरे’ ||
करे ‘कामकी बात सार्थक’, ‘ओज’ भरे ‘वाणी’ में-
सोई ‘ताक़त’ जगे, उन्हें बस, ‘वह सन्देश’ सुनाये ||
हर कोई ‘इस नये वर्ष’ को, कुछ इस तरह मनाये |
‘उम्मीदों के भवन’ जो टूटें, फिर से उन्हें बनाये ||१||

 

‘विगत वर्ष’ की ‘कोई गलती’ अब न कोई दोहराये |
आपस की नफ़रत की खाई’ अब न कहीं गहराये ||
और एकजुट हो कर, ‘संगठना की शक्ति’ बढ़ाकर-
‘मानवता’ साहस कर, ‘सारी दानवता’ को हराये ||
मिला के ‘सुर’ में ‘सुर’, ‘सरगम’ हम, कर ‘आवाज़’ को ‘जिन्दा’-
‘प्यार’ कहीं सोया हो, उसको, बजा के ‘बिगुल‘ जगाये ||
हर कोई ‘इस नये वर्ष’ को, कुछ इस तरह मनाये |
‘उम्मीदों के भवन’ जो टूटें, फिर से उन्हें बनाये ||२||



कवियों में कुछ ‘कालिदास’, कुछ ‘शेक्सपियर’ से उपजें |
और ‘चन्द्रवरदायी’, भूषण, ‘ओज’ है क्या, यह समझें ||
कई ‘जायसी’, ‘तुलसी’, ’मीरा’, हों ‘रसखान’, ‘सूर’ से-
‘गुप्त’, ‘प्रसाद’ से सुलझे हों ये, मत ‘विवाद’ में उलझें ||
‘भारतेंदु’ से, ‘शुक्ल’, ‘दास’ से, ‘प्रेमचंद’ जैसे कुछ-
‘काव्य-कला’, साहित्य से अपने देश को तनिक उठायें ||
हर कोई ‘इस नये वर्ष’ को, कुछ इस तरह मनाये |
‘उम्मीदों के भवन’ जो टूटें, फिर से उन्हें बनाये ||३||

 




‘नाट्य-कला के सिद्ध’ देश के कुछ ‘अभिनेता’ अच्छे |
‘सुधारवादी’ भरें ‘हृदय’ में, ‘भाव प्रेम के सच्चे’ ||
‘नग्नवाद’ के थाल’ परोसें, रचें न ‘ऐसी फ़िल्में’-
‘कुवासना’ में रत हो कर के, जिनसे बिगाडें बच्चे ||
मत नाचें अब ‘नाच दिगम्बर’, ‘पंख उठे मोरों’ से-
‘मुन्नी’,’शीला’ को आधे से कम’ न वासन पहनायें ||
हर कोई ‘इस नये वर्ष’ को, कुछ इस तरह मनाये |
‘उम्मीदों के भवन’ जो टूटें, फिर से उन्हें बनाये ||४||


“प्रसून” सारे देश में अपने, बने, ‘सन्तुलन’ ‘गति’ का |
तब होवे ‘सपना’ सच ‘अपने हिन्द की सही प्रगति’ का ||
‘न्याय’ और ‘व्यापार’, ‘प्रशासन, सब मिल देश सुधारें-
‘सद्उपयोग’ सदा हो भारत में सब की ‘सन्मति’ का ||
‘व्यभिचारों’ पर ‘अंकुश’ लग कर, दशा देश की सुधरे-
‘भ्रष्टाचार’ की आग बुझे, हम ढंग कोई अपनाएं ||
हर कोई ‘इस नये वर्ष’ को, कुछ इस तरह मनाये |
‘उम्मीदों के भवन’ जो टूटें, फिर से उन्हें बनाये ||५||



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सामयिकी(५) बीत गये इस वर्ष में |(एक कटु सत्य)

मैंबीते वर्ष की 'वधाई', 'झूठ' का मुलम्मा' चढ़ाकर कैसे दूं ? सारा देश  जिन पीडाओं से कराहता रहा उन का सच्चा कच्चा चिट्ठा आपके सामने है |

(सारे चित्र 'गूगल-खोज'से साभार)
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‘चिन्तन-मनन’ करें हम थोड़ा, देखें कुछ टटोल कर-
‘क्या खोया,क्या पाया हमने’, बीत गये इस वर्ष में|
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हुये ‘प्रयास हज़ारों, लाखों’, नित नव यहाँ ‘सुधारों’के |
फिर भी सक्रीय रहे ‘धूर्त जन’, ‘अनुगामी कुविकारों‘ के ||
और उन्हीं की ‘पौवारह’ थी, उठा के सिर वे जिये यहाँ-
‘अपराधों के रंग’ में रंगते रहे ‘पृष्ठ अखबारों के |
‘अज्ञानी’ सुधारे न ‘ज्ञान’ के देखे ‘बोल’ बोल कर-
‘प्रश्न-चिन्ह’ लग गया हमारे ‘सामाजिक उत्कर्ष’ में ||
‘चिन्तन-मनन’ करें हम थोड़ा, देखें कुछ टटोल कर-  
‘क्या खोया,क्या पाया हमने’, बीत गये इस वर्ष में ||१||

 
‘उत्पादन के पवन पुत्र से बाज़ारों’ पर छाई थी |
मुहँ फैलाये ‘डायन सुरसा’ सी ‘अड़ियल महँगाई’ थी ||
‘खूनी पंजे राजनीति के’, ‘योजनाओं के पंख’ लिये-   
‘अरमानों के कबूतरों’ पर, ‘चील’ सी यह मंडराई थी ||
‘जन-मन-खंजन’ सहमे, दौड़ी ‘भूखी चोंच’ खोल कर-
घुसीं ‘निराशा’ और ‘वेदना’, ‘आशाओं के हर्ष’ में ||
‘चिन्तन-मनन’ करें हम थोड़ा, देखें कुछ टटोल कर-  
‘क्या खोया,क्या पाया हमने’, बीत गये इस वर्ष में ||२||


‘कूटनीति’ के जमे अखाड़े, ‘जोश’ आ गया ‘मल्लों’ को |
‘नारेबाजी’ करने का कुछ, मिल गया ‘काम’ ‘निठल्लों’ को ||
किया ‘शिकार’ ‘भेड़ियों’ ने था, ‘माल माल’ सब चाट लिया-
बची खुची मिल गयी ‘गिज़ा’ फिर, कुछ ‘कूकर ‘दुमछल्लों’को||
बिन देखे, ‘क्या सच’ है, की ‘हाँजी-हाँजी’ दिल खोल कर-
‘भीड़-तन्त्र’ में रँग था फीका, ‘विश्लेषण-विमर्श’ में ||                ‘चिन्तन-मनन’ करें हम थोड़ा, देखें कुछ टटोल कर-  
‘क्या खोया, क्या पाया हमने’, बीत गये इस वर्ष में ||३||

‘कुवासना के पथ के गामी- कामी कुटिल पिशाच’, जगे |
जहाँ तहाँ ‘नारीत्व’ की उजली, ‘चूनरिया’  पर ‘दाग’ लगे ||
कई ‘कुमारी ललनाओं’ के ‘कौमार्य’ भी भंग हुये-
और ‘नीचता की वीणा’ में, बड़े ‘घिनौने राग’ जगे ||
‘कनाल-ताल’ में ‘सूअर’ नहाये, जी भर  ‘काम-किलोल’ कर-
‘मैली गन्ध’ मिल गयी ‘जल’ में, ‘हर कामी स्पर्श’ में ||
‘चिन्तन-मनन’ करें हम थोड़ा,  देखें कुछ टटोल कर-  
‘क्या खोया, क्या पाया हमने’, बीत गये इस वर्ष में ||४||

 


लेकर ‘पाप की जलती ज्वाला’, बढ़ कर आई ‘दानवता’ |
‘दिल्ली की बगिया’ में पहुँची, वहाँ जलाने ‘मानवता’ ||
‘नारी की लज्जा’ को रौंदा, ‘मर्यादायें’ रौंद सभी-
‘विकृत काम-पिशाच’ ने कुचली, ‘कौमार्य की स्नेह-लता’ ||
चीखा ‘मौन’, उठी ‘आवाजें’ ‘अपनी ताक़त’ तोल कर-    
‘विप्लव की आँधियाँ’ चल पड़ीं, पूरे भारतवर्ष में ||
‘चिन्तन-मनन’ करें हम थोड़ा, देखें कुछ टटोल कर-  
‘क्या खोया, क्या पाया हमने’, बीत गये इस वर्ष में ||५||

 

सारे वर्ष ‘शान्ति के नभ’ में, छाये ‘बादल काले’ |
मथते रहे ‘कमल-तालों’ को, ‘पाप के गज मतवाले’ ||
रिसती रहीं कई ‘पीडायें’ ‘नयन’ से ‘आँसू’ बन् कर-      
‘विडम्बना’ ने किया देश को, था ‘दर्दों’ के हवाले ||
‘प्रसून’ रोये ‘पीडा’ पीकर, ‘संयम-रस’ में घोल कर-
रो रो कर थक गये, तभी ‘दम’, आया है ‘संघर्ष’ में ||
‘चिन्तन-मनन’ करें हम थोड़ा, देखें कुछ टटोल कर-  
‘क्या खोया, क्या पाया हमने’, बीत गये इस वर्ष में ||६||

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रविवार, 30 दिसम्बर 2012

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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