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रविवार, 30 सितंबर 2012

ज्वालामुखी (एक गरम जोश काव्य) (ख) आग का खेल (५) ‘अपेक्षा’के ‘तन’पर ‘आघात’



आज एक रहस्य-वादी रचना,'आग के जखीरे' में फँसे 'मेमने' की तरह प्रस्तुत है | रचना में 'प्रियतम' शब्द,समाज की 'वांछित मनोकामना'
के लिये प्रयुक्त है |  (सारे चित्र 'गूगल-खोज से साभार) 

 

अपेक्षाके ‘तन’पर ‘आघात’

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तची ‘प्रतीक्षाओं की ज्वाला’ में ‘चाहत’ ‘जल उठी’|

अरे कुठारापात !‘अपेक्षा’ के तन पर ‘आघात’ !!


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‘घोर निराशाओं’ का ‘कुहरा’ |


‘मन-आँगन’ में आज है भरा ||



कैसे किसे बतायें, कैसे ‘बोझल उम्र’ कटी !

उस ‘कोहरे की धुन्ध’ बन् गयी,जैसे ‘काली रात|

अरे कुठारापात !‘अपेक्षा’ के तन पर ‘आघात’ |!१||





‘सिसकी’ तले दब गया ‘क्रन्दन’ |

क्योंकर हाय ‘तप गया’’चन्दन !!

हमें नहीं रुचता है जो भी,करती ‘प्रकृति-नटी’ |

‘दुश्मन’ ‘जाड़ा’,’दुश्मन’ ‘गर्मी’,’दुश्मन’ है ‘बरसात’||

अरे कुठारापात !‘अपेक्षा’ के तन पर ‘आघात ’!!२||



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प्यासे प्यासे सूने नयना |

बरसे ज्यों मरुथल में झरना ||

‘आयु’ ‘लुटेरी’, ‘समय’ ‘लुटेरा’,’रस की गागर’ लुटी |

अंग अंग’ की ‘कोमलता’पर हुआ ‘तड़ित का पात ||

अरे कुठारापात !‘अपेक्षा’ के तन पर ‘आघात ’!!३||



 



 ‘प्रियतम’के आने की खबरें |

उठीं ‘ह्रदय-सर’ में ‘कुछ लहरें’ ||


‘उन लहरों’ में ‘विगत वेदना’ की ‘बिम्बित छबि’ मिटी |

‘अपने’ से भी ‘अपने’ द्वारा हो न् सकी कुछ बात ||

अरे कुठारापात !‘अपेक्षा’ के तन पर ‘आघात ’!!४||





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ज्वालामुखी (एक गरम जोश काव्य) (ख) आग का खेल( (४) धधक रहा है कोना कोना ==================



धधक रहा है कोना कोना
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‘रस-प्रवाह’अब लगा ठहरने,
जल-जल पूरी उम्र है काटी |
निष्ठुर बन् कर खेल रही है, ‘आग’ ,‘नाश का खेल घिनौना’||
धधक रहा है कोना कोना ||
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कहीं उदर में ‘जठर अनल’ है | 
कहीं हृदय में ‘काम-अनल’ है ||
करती कहीं ‘वासना’छल है |
‘हिंसा’जलती कहीं प्रबल है ||
लगी ‘प्रकृति’में ‘ज्वाला’भरने |
‘शान्त चिन्तन की परिपाटी’-
‘एक दाह-दुःख’ झेल रही है ||
कितना दुष्कर जगना सोना |
पूज रहा ‘युग’,‘चाँदी-सोना’ ||
निष्ठुर बन् कर खेल रही है,

‘आग’ ,‘नाश का खेल घिनौना’||
धधक रहा है कोना कोना ||१||.

 

झुलसा ‘इच्छाओं का कमल’ है |
तप्त हुआ ‘नयनों का जल’ है ||
दूषित हुआ ‘प्रेम का जल’ है ||
लगी ‘नियति’है हर सीख हरने |
इसने ‘विप्लव-घड़ियाँ’ बाँटीं-
तन पर ‘काँटे’ झेल रही है ||
प्रीति’ चाहती है बस रोना |
कहती है ‘अब ज़ुल्म करो ना ||
‘जिन्दगी’ इसको ‘जेल’ हुई है –
इसमें इतने ‘दर्द’ भरो ना ||
 धधक रहा है कोना कोना ||२||.


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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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